आजीविका कमाने के उद्देश्य से व्यावसायिक वस्तुओं की खरीदारी करने वाला ‘उपभोक्ता’ की श्रेणी में : सुप्रीम कोर्ट उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम।
माननीय सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में फैसला फैसला देते हुए कहा है की कोई व्यक्ति स्वयं गए माल को दुबारा बेचने के उद्देश्य के लिए या बड़े पैमाने पर लाभ कमाने वाली गतिविधि में इस्तेमाल के लिए किसी प्रकार का सामान खरीदता है, तो वह उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अधीन किसी भी प्रकार के संरक्षण का हकदार या ‘उपभोक्ता’ नहीं होगा। यद्पि, यदि कोई स्व रोजगार के नज़रिये से तथा आजीविका कमाने के उद्देश्य से किसी उत्पाद को खरीद कर पुनः बिक्री करता है तो वस्तुओं के ऐसे क्रेता ‘उपभोक्ता’ बने रहेंगे।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत अभिव्यक्ति “व्यावसायिक उद्देश्य” की व्याख्या करते हुए, माननीय जस्टिस एस रवींद्र भट और माननीय जस्टिस अरविंद कुमार की पीठ ने कथन किया है कि यदि सामान या सेवाओं को खरीदने का प्रमुख उद्देश्य मात्र लाभ अर्जित करना रहा है और उक्त तथ्य मामले के रिकॉर्ड से स्पष्ट है, ऐसा क्रेता उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत ‘उपभोक्ता’ के दायरे में नहीं आएगा, जैसा कि अधिनियम की धारा 2(1)(डी) (रोहित चौधरी एवं अन्य बनाम मेसर्स विपुल लिमिटेड) के अंतर्गत परिभाषित है।
हालांकि, माननीय न्यायलय ने टिप्पणी की कि यदि कोई व्यक्ति किसी प्रकार की वाणिज्यिक (commercial) उद्देश्य के लिए नहीं बल्कि अपने स्वयं के उपयोग के लिए कोई सामान या किसी प्रकार की सेवाएं खरीदता है, तो यह नहीं कहा जा सकता है कि ऐसी परिस्थितियों में भी लेनदेन व्यक्ति को छोड़कर, लाभ के उद्देश्य से वाणिज्यिक उद्देश्य के लिए ‘ उपभोक्ता’ की परिभाषा में होगा।
अदालत ने यह टिप्पणी 1993 के अध्यादेश/संशोधन अधिनियम द्वारा अंकित कि गई धारा 2(1)(डी) के सन्दर्भ में स्पष्टीकरण करते हुए की, जो कुछ उद्देश्यों को “व्यावसायिक उद्देश्य” की मूल भावना के दायरे से बाहर करती है। स्पष्टीकरण के अनुसार, यदि किसी क्रेता द्वारा स्वयं के स्वरोजगार के माध्यम से अपनी तथा अपनी आजीविका कमाने के उद्देश्य से उक्त वस्तु या सेवा का व्यावसायिक उपयोग किया जाता है, तो माल या वस्तु का ऐसा क्रेता ‘उपभोक्ता’ बना रहेगा।
माननीय न्यायलय ने लीलावती कीर्तिलाल मेहता मेडिकल ट्रस्ट बनाम यूनिक शांति डेवलपर्स और अन्य (2019) के फैसले का जिक्र किया है, जिसमें कथन किया गया था कि “यह तय करने के लिए किसी प्रकार का स्ट्रेट-जैकेट फॉर्मूला तय नहीं है कि माल का उपयोग उसकी प्रकृति में वाणिज्यिक (commercial) है या नहीं और यह और प्रत्येक विवाद की अपनी परिस्थितियों और तथ्यों पर निर्भर करेगा।
इसीलिए माननीय न्यायलय ने कहा कि जब कोई उपभोक्ता अपनी शिकायत में यह दावा करता है कि शिकायतकर्ता ने अपनी आजीविका कमाने के उद्देश्य के लिए सामान खरीदा है, तो ऐसी शिकायत को प्रथम दृस्टि से खारिज नहीं किया जाना चाहिए। ऐसे मामलों में, दोनों पक्षकारों द्वारा माननीय न्यायलय के समक्ष प्रस्तुत किये गए सबूतों का उपभोक्ता न्यायालय या आयोग द्वारा दोनों पक्षकारो द्वारा दी गयी दलीलों के आधार पर मूल्यांकन किया जाना चाहिए ताकि न्यायलय इस निष्कर्ष पर पहुँच सके कि शिकायतकर्ता ‘उपभोक्ता’ है या नहीं।
पूरा मामला:
मामले के अपीलकर्ताओं ने मेसर्स विपुल लिमिटेड के माध्यम से प्रचारित एक वाणिज्यिक परिसर में एक वाणिज्यिक स्थान बुक किया था। कुछ समय बाद मेसर्स विपुल लिमिटेड अपीलकर्ताओं को आवंटित कार्यालय स्थान इकाई का कब्ज़ा देने में विफल रहा था तथा आगे चल कर, अपीलकर्ता-खरीदारों ने खरीदार के समझौते को अस्वीकार करार देते हुए परिसर हेतु जमा करवाई गई राशि वापस मांगते हुए राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद का निवारण आयोग (एनसीडीआरसी) के समक्ष मामला प्रस्तुत किया था।
आयोग ने यह मानते हुए कि अपीलकर्ता अधिनियम के तहत ‘उपभोक्ता’ नहीं थे क्योंकि वे पहले से ही अपनी आजीविका के उद्देश्य से व्यवसाय कर रहे थे, उक्त शिकायत को सुनवाई योग्य ना होने के आधार पर खारिज कर दिया। तथा यह मानते हुए कि शिकायतकर्ता अपनी आजीविका के लिए रिलायंस इंडस्ट्रीज का डीलरशिप व्यवसाय चला रहे थे और कई प्रकार की संपत्ति में निवेश के व्यवसाय में भी लगे हुए थे, आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि, उनके द्वारा बुक की गई वाणिज्यिक जगह को स्व-रोज़गार द्वारा जीविकोपार्जन के उद्देश्य से नहीं माना जा सकता है। इसलिए, आयोग कथा किया कि अपीलकर्ता अधिनियम की धारा 2(1)(डी) के तहत परिभाषित उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं आते हैं।
माननीय सर्वोच्च न्यायलय कि विश्लेषण: माननीय सर्वोच्च न्यायलय के समक्ष दायर अपील में, माननीय न्यायलय ने अधिनियम की धारा 2(1)(डी) के तहत ‘उपभोक्ता’ की परिभाषा का विश्लेषण किया, तथा यह कहते हुए कि एक व्यक्ति जो पुन: बिक्री या किसी वाणिज्यिक कार्य के लिए सामान/सेवाएं प्राप्त करता है उसके इस उद्देश्य को अधिनियम के तहत ‘उपभोक्ता’ के दायरे से बाहर रखा गया है। माननीय न्यायलय ने यहाँ भी कहा कि किसी भी व्यक्ति को “उपभोक्ता” अभिव्यक्ति के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए जो किसी भी बडे पैमाने पर लाभ कमाने के उद्देश्य से व्यावसायिक उद्देश्य से सामान खरीदता है।
माननीय न्यायलय ने कहा कि, उपभोक्ता की परिभाषा से उन लोगों को बहार करना है जो बड़े पैमाने पर लाभ कमाने के उद्देश्य से माल का पुनर्विक्रय करते हैं तथा यह भी सुनिश्चित करना होगा की विशेष सामान को अपनी आजीविका अर्जित करने के उद्देश्य खरीदा गया है तो ऐसे शिकायतकर्ता कि शिकायत को सिरे से ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए।
माननीय न्यायलय यह भी कहा कि शिकायत में दिए गए दावे गुण-दोष के आधार पर इसकी जांच होनी चाहिए तथा मामला सकारात्मक रूप में होने पर उसकी सुनवाई होनी चाहिए तथा यदि मामला नकारात्मक रूप में है तो ख़ारिज किया जाना उचित रहेगा। इस मामले में माननीय न्यालय ने कहा की व्यावसायिक संपत्ति को खरीदे जाते वक़्त यश उद्देश्य स्पष्ट नहीं है की वह इसे बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक उद्देश्य की पूर्ती हेतु खरीद रहा है।
माननीय न्यायलय ने निष्कर्ष दिया की:
उक्त समस्त परिदृश्य में, आयोग द्वारा विवादित आदेश के पैराग्राफ 8 में दर्ज निष्कर्ष गलत है और धारा 2(1)(डी) के तहत परिभाषित अभिव्यक्ति” उपभोक्ता “की परिभाषा के विपरीत है। माननीय न्यायलय ने कहा कि विवाद वर्ष 2006 से संबंधित है और अपीलकर्ताओं ने डवलपर मेसर्स विपुल लिमिटेड को 51 लाख रुपये का भुगतान किया था तथा निर्धारित समय अवधि समाप्त होने के बाद भी आवंटित कार्यालय स्थान खरीददार को वितरित नहीं किया गया था।
माननीय न्यायलय ने फैसला सुनाया,
प्रतिवादी को अपीलकर्ताओं से प्राप्त राशि को 12% प्रति वर्ष की दर से ब्याज के साथ वापस करने का निर्देश देना उचित होगा, तथा अपील को स्वीकार करते हुए, अदालत ने एनसीडीआरसी द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया।
केस लॉ : रोहित चौधरी और अन्य बनाम मेसर्स विपुल लिमिटेड
पक्षकारों के लिए वकील: अजय कुमार सिंह, एओआर, धीगेंद्र के शर्मा, एडवोकेट। अनुभव भंडारी, एडवोकेट। निहारिका दुबे, एडवोकेट, एम आर शमशाद, एओआर, अतुल शर्मा, एडवोकेट। अंकुर शर्मा, एडवोकेट। आलोक त्रिपाठी, एओआर।