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Supreme Court Consumer Rights Vs Arbitration Judgment सर्वोच्च न्यायालय उपभोक्ता अधिकार एवं मध्यस्थता निर्णय

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Supreme Court Consumer Rights Vs Arbitration Judgment

उपभोक्ता अधिकार: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला – उपभोक्ता फोरम बनाम मध्यस्थता क्लॉज

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में उपभोक्ताओं के हित में एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है, जो उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 को और अधिक मजबूत बनाता है। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि मध्यस्थता क्लॉज (Arbitration Clause) होने के बावजूद, यदि उपभोक्ता चाहे तो वह उपभोक्ता फोरम (Consumer Forum) का रुख कर सकता है। इस ऐतिहासिक फैसले ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि उपभोक्ता अधिकार (Consumer Rights) सर्वोपरि हैं।

मामले की पृष्ठभूमि: त्रिपक्षीय समझौता और उपभोक्ता शिकायत

यह मामला सिटीकॉर्प फाइनेंस (इंडिया) लिमिटेड बनाम स्नेहाशिष नंदा से जुड़ा है। इस मामले में उत्तरदाता (शिकायतकर्ता) ने ICICI बैंक से ₹17,64,644 का आवास ऋण लेकर एक फ्लैट खरीदा था। बाद में एक व्यक्ति, मुबारक वहिद पटेल, ने उस फ्लैट को ₹32,00,000 में खरीदने में रुचि दिखाई। इसके लिए पटेल और Citicorp Finance के बीच ₹23,40,000 का ऋण समझौता हुआ।

चूंकि फ्लैट पहले से ही गिरवी था, इसलिए ऋण लेने वाले ने आग्रह किया कि ₹17,80,000 की राशि सीधे ICICI बैंक को दी जाए ताकि फ्लैट मुक्त हो सके। शेष ₹13,20,000 की राशि उत्तरदाता को मिलनी थी। जब यह भुगतान नहीं हुआ, तो उत्तरदाता ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग (NCDRC) में उपभोक्ता शिकायत (Consumer Complaint) दर्ज की।

NCDRC का आदेश: उपभोक्ता के पक्ष में फैसला

NCDRC ने उपभोक्ता की शिकायत को स्वीकार करते हुए सिटीकॉर्प फाइनेंस को ₹13,20,000 की राशि ब्याज सहित लौटाने और ₹1,00,000 का मुकदमे का खर्च देने का आदेश दिया। इसके विरोध में सिटीकॉर्प ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, यह कहते हुए कि त्रिपक्षीय समझौते में मध्यस्थता क्लॉज था, इसलिए विवाद का निपटारा मध्यस्थता के जरिए होना चाहिए।

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सुप्रीम कोर्ट का विचार: उपभोक्ता को बाध्य नहीं किया जा सकता

सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने यह दोहराया कि उपभोक्ता को केवल इसलिए मध्यस्थता में जाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता क्योंकि अनुबंध में ऐसा प्रावधान है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि उपभोक्ता फोरम बनाम मध्यस्थता की स्थिति में, चयन का अधिकार उपभोक्ता के पास ही होगा

उच्च न्यायालय के पूर्व फैसलों का संदर्भ

न्यायालय ने Emaar MGF Land Ltd. बनाम आफताब सिंह (2019) और M. हेमलता देवी बनाम बी. उदयश्री (2024) जैसे मामलों का उल्लेख करते हुए कहा कि:

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम एक कल्याणकारी कानून (Welfare Legislation) है, जो उपभोक्ता हितों की रक्षा के लिए बनाया गया है। इस कारणवश, यदि उपभोक्ता चाहे तो वह सार्वजनिक मंच – जैसे उपभोक्ता फोरम – के माध्यम से समाधान पा सकता है। केवल अनुबंध में मध्यस्थता का उल्लेख होने मात्र से उसे बाध्य नहीं किया जा सकता।”

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह दोहराया कि उपभोक्ता कानून एक कल्याणकारी कानून है और इसका उद्देश्य उपभोक्ता के हितों की रक्षा करना है। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि उपभोक्ता को यह विवेकाधिकार है कि वह मध्यस्थता की प्रक्रिया अपनाना चाहता है या सार्वजनिक मंच — यानी उपभोक्ता फोरम — का रुख करना चाहता है।

न्यायालय ने M. हेमलता देवी बनाम बी. उदयश्री (2024) के मामले का हवाला देते हुए कहा कि जब उपभोक्ता किसी कल्याणकारी विधिक मंच से समाधान चाहता है, तब उसे मध्यस्थता के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, भले ही उसने उस समझौते पर हस्ताक्षर किए हों जिसमें मध्यस्थता का प्रावधान है।

न्यायालय ने कहा:

“यह स्पष्ट है कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 एक कल्याणकारी कानून है, जिसका उद्देश्य उपभोक्ताओं के अधिकारों की रक्षा करना है। इस कारणवश, यदि कोई उपभोक्ता विवाद है, तो उसे सार्वजनिक मंच जैसे कि उपभोक्ता फोरम में ले जाना न केवल उपयुक्त है, बल्कि यह सार्वजनिक नीति के अनुरूप भी है। ऐसी स्थिति में, जब तक दोनों पक्ष स्पष्ट रूप से मध्यस्थता को चुनने के लिए सहमत न हों, तब तक विवाद को मध्यस्थता मंच पर नहीं ले जाया जा सकता।”

त्रिपक्षीय समझौते की वैधता पर भी सवाल

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इस केस में जिस त्रिपक्षीय समझौते का हवाला दिया जा रहा है, उसकी विधिक मान्यता (Legal Validity) ही संदेह के घेरे में है। जब तक यह प्रमाणित नहीं होता कि समझौता वैध था और दोनों पक्ष उसकी सभी शर्तों से सहमत थे, तब तक किसी मध्यस्थता क्लॉज को लागू करना संभव नहीं।

न्यायालय ने Emaar MGF Land Ltd. बनाम आफताब सिंह (2019) के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि:

“यदि किसी समझौते में मध्यस्थता का विकल्प दिया गया है, तो भी उसका प्रयोग केवल उपभोक्ता की इच्छा पर निर्भर करता है। अपीलकर्ता चूंकि स्वयं उपभोक्ता की परिभाषा में नहीं आता और समझौते की वैधता पर संदेह है, इसलिए हमें इस विषय पर अधिक चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है।”

सारांश: उपभोक्ता संरक्षण कानून की पुष्टि

इस निर्णय ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया कि उपभोक्ता विवाद गैर-मध्यस्थनीय (Non-Arbitrable) हो सकते हैं, खासकर जब उपभोक्ता अपनी मर्जी से मध्यस्थता से इनकार कर देता है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल उपभोक्ता अधिकारों की पुष्टि करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि कोई भी समझौता उपभोक्ता के कानूनी विकल्पों को सीमित नहीं कर सकता।

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