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ड्रग प्रभावशीलता और वाणिज्यिक भाषण की आज़ादी पर दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला Consumer Cannot Be Misled by False Drug Claims – Dabur vs Patanjali Case Explained
“Delhi High Court Verdict” Consumer Cannot Be Misled by False Drug Claims – Dabur vs Patanjali Case Explained
मामला क्या था – डाबर बनाम पतंजलि
किस चीज़ को लेकर विवाद हुआ?
दिल्ली हाईकोर्ट में एक प्रमुख विवाद उस समय सामने आया जब डाबर इंडिया लिमिटेड ने पतंजलि आयुर्वेद के खिलाफ एक मुकदमा दायर किया। मामला पतंजलि द्वारा अपने उत्पाद “chyawanprash” को प्रमोट करते हुए डाबर के उत्पाद को नीचा दिखाने वाले विज्ञापनों से जुड़ा था। इन विज्ञापनों में पतंजलि ने अप्रत्यक्ष रूप से डाबर के ब्रांड की आलोचना करते हुए उसके उत्पाद को “सामान्य” और “कम गुणकारी” बताया।
कोर्ट में क्या दलीलें दी गईं?
डाबर की तरफ से यह तर्क दिया गया कि पतंजलि ने जानबूझकर ऐसे शब्दों और वाक्यांशों का प्रयोग किया जिससे उपभोक्ताओं में भ्रम उत्पन्न हो और उनका ब्रांड नीचा दिखाया जाए। वहीं पतंजलि ने इसे वाणिज्यिक भाषण की आज़ादी बताया और खुद को केवल “तथ्य प्रस्तुत करने वाला” बताया।
उपभोक्ता अधिकार और गुमराह करने की प्रवृत्ति
वाणिज्यिक भाषण की सीमाएं
भारत में संविधान के तहत वाणिज्यिक भाषण को एक सीमित स्वतंत्रता मिली है। लेकिन जब यह स्वतंत्रता झूठे और भ्रामक दावों के साथ उपभोक्ताओं को गुमराह करने लगे, तब यह स्वतंत्रता, गैर-कानूनी हो जाती है। कोर्ट ने साफ किया कि व्यापार की स्वतंत्रता उपभोक्ताओं के अधिकारों से ऊपर नहीं हो सकती।
औषधीय दावों में सच्चाई का महत्व
कोर्ट ने यह भी कहा कि जब बात औषधीय उत्पादों की हो, तब हर दावा तथ्यों पर आधारित होना चाहिए। क्योंकि इस तरह के उत्पाद सीधे उपभोक्ता के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। ऐसे में भ्रामक या झूठे दावों को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
न्यायमूर्ति मिणी पुष्कर्णा की टिप्पणी
झूठे दावों की कानूनी सीमा
न्यायमूर्ति मिनी पुष्कर्णा ने स्पष्ट रूप से कहा कि किसी भी दवा या औषधीय उत्पाद को लेकर झूठे, आधारहीन या गलत दावे करना कानून के खिलाफ है। उन्होंने यह भी कहा कि विज्ञापन में उत्पादों की तुलना करते हुए भी सावधानी बरतनी चाहिए, विशेषकर जब वह दवा या हेल्थ सप्लीमेंट हो।
औषधियों में तुलना का दायरा सीमित
कोर्ट ने यह साफ कहा कि जो तुलना किसी टॉयलेट क्लीनर के मामले में स्वीकार्य हो सकती है, वही तुलना एक औषधीय उत्पाद के लिए अवैध और गुमराह करने वाली हो सकती है। इसलिए औषधीय उत्पादों के मामले में तुलना या पफरी (puffery) की सीमा कहीं ज्यादा सख्त होनी चाहिए।
क्या कहा कोर्ट ने विज्ञापनों पर?
कौन सी पंक्तियाँ हटाने का आदेश दिया गया?
कोर्ट ने पतंजलि को अपने टीवी विज्ञापन से यह पंक्ति हटाने का निर्देश दिया:
“जिनको आयुर्वेद और वेदों का ज्ञान नहीं, चरक, सुश्रुत, धन्वंतरि और च्यवन ऋषि की परंपरा के अनुरूप, ओरिजिनल च्यवनप्राश कैसे बना पाएंगे?”
साथ ही प्रिंट विज्ञापन में यह पंक्ति हटाने का आदेश दिया:
“Why settle for ordinary Chyawanprash made with 40 herbs?”
टीवी और प्रिंट विज्ञापन पर कोर्ट की नजर
कोर्ट ने माना कि इन विज्ञापनों का इरादा सीधा-सीधा डाबर की ब्रांड इमेज को कमजोर करना था और यह एक प्रकार का “डिसपैरजमेंट” यानी जानबूझकर किसी प्रतिस्पर्धी उत्पाद की छवि बिगाड़ना था।
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औषधीय उत्पादों के विज्ञापन का प्रभाव
उपभोक्ताओं के व्यवहार पर असर
कोर्ट ने यह भी माना कि औषधीय उत्पादों के विज्ञापन उपभोक्ताओं की खरीदारी के निर्णय को सीधा प्रभावित करते हैं। जब एक ब्रांड किसी अन्य ब्रांड को “असली” या “झूठा” कहता है, तो यह उपभोक्ता के मन में संदेह उत्पन्न करता है।
टीवी और डिजिटल मीडिया की भूमिका
वर्तमान समय में टीवी, यूट्यूब और सोशल मीडिया जैसे माध्यमों का प्रभाव बहुत गहरा है। इन माध्यमों के जरिए फैलाया गया भ्रामक प्रचार न सिर्फ एक ब्रांड को नुकसान पहुंचाता है, बल्कि उपभोक्ताओं को भी गलत दिशा में ले जाता है।
असत्यापित दावों का सामाजिक प्रभाव
स्वास्थ्य पर खतरा
जब कोई औषधि या हेल्थ सप्लीमेंट झूठे दावों के साथ प्रचारित होती है, तब उपभोक्ता की सेहत पर गंभीर खतरा पैदा हो सकता है। गलत दावे लोगों को भ्रमित कर सकते हैं और वे उस उत्पाद का उपयोग कर सकते हैं जो उनकी सेहत के लिए नुकसानदायक हो।
भ्रम और भ्रामक प्रचार की चुनौती
डिजिटल युग में उपभोक्ताओं को भ्रमित करना बहुत आसान हो गया है। ऐसे में अदालतों की जिम्मेदारी बनती है कि वे विज्ञापन में की जा रही असत्यता की जांच करें और जरूरत पड़ने पर सख्त कदम उठाएं।
निष्कर्ष
दिल्ली हाईकोर्ट का यह फैसला स्पष्ट करता है कि वाणिज्यिक भाषण की आज़ादी असीमित नहीं है, खासकर तब जब वह उपभोक्ताओं को झूठी दवा प्रभावशीलता या दूसरों की छवि बिगाड़ने के लिए इस्तेमाल हो। इस फैसले से न केवल औषधीय उत्पाद बनाने वाली कंपनियों को चेतावनी मिली है, बल्कि उपभोक्ताओं के हितों की भी रक्षा हुई है। यह एक महत्वपूर्ण निर्णय है जो भारतीय बाजार में ईमानदार प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देता है।
डाबर बनाम पतंजलि केस पर आधारित 15 महत्वपूर्ण FAQs
1. डाबर बनाम पतंजलि केस क्या है?
यह एक वाद था जिसमें डाबर ने पतंजलि के खिलाफ शिकायत की थी कि उनके विज्ञापनों में डाबर के च्यवनप्राश को नीचा दिखाया गया है और उपभोक्ताओं को भ्रमित किया गया है।
2. कोर्ट ने इस मामले में क्या फैसला दिया?
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि उपभोक्ताओं को झूठे दावों के आधार पर गुमराह नहीं किया जा सकता और वाणिज्यिक भाषण की स्वतंत्रता की भी एक सीमा होती है।
3. क्या पतंजलि को अपने विज्ञापन हटाने पड़े?
हां, कोर्ट ने पतंजलि को कुछ विशिष्ट पंक्तियाँ टीवी और प्रिंट विज्ञापनों से हटाने का आदेश दिया जो डाबर के उत्पाद की छवि को नुकसान पहुंचा रही थीं।
4. डिसपैरजमेंट (Disparagement) का क्या मतलब होता है?
जब कोई ब्रांड दूसरे ब्रांड की नकारात्मक छवि बनाकर खुद को बेहतर दिखाने की कोशिश करता है, तो उसे डिसपैरजमेंट कहा जाता है।
5. क्या वाणिज्यिक भाषण की पूरी स्वतंत्रता है भारत में?
नहीं, भारत में वाणिज्यिक भाषण की स्वतंत्रता सीमित है, विशेष रूप से जब वह झूठे या भ्रामक दावों के साथ किया जाए।
6. अदालत ने किन पंक्तियों को हटाने का निर्देश दिया?
टीवी विज्ञापन से “जिनको आयुर्वेद और वेदों का ज्ञान नहीं…” और प्रिंट विज्ञापन से “Why settle for ordinary Chyawanprash made with 40 herbs?” पंक्तियाँ हटाने को कहा गया।
7. क्या किसी भी औषधीय उत्पाद का तुलना करना अवैध है?
नहीं, तुलना की जा सकती है, लेकिन यह सच्ची, तथ्यात्मक और ईमानदार होनी चाहिए। झूठे दावे अवैध माने जाते हैं।
8. क्या टीवी और डिजिटल विज्ञापन पर कोर्ट की निगरानी होती है?
हां, खासकर जब बात औषधीय उत्पादों की हो, तब अदालत इन विज्ञापनों के प्रभाव और भाषा की गंभीरता से समीक्षा करती है।
9. उपभोक्ता को ऐसे मामलों में क्या अधिकार होते हैं?
उपभोक्ता को सचेत रहने का और भ्रामक विज्ञापनों की शिकायत करने का पूरा अधिकार है। वे उपभोक्ता मंच या नियामक संस्थाओं से संपर्क कर सकते हैं।
10. क्या पतंजलि का पूरा च्यवनप्राश विज्ञापन बैन हुआ है?
नहीं, सिर्फ वे हिस्से जिनमें डाबर के उत्पाद की अप्रत्यक्ष आलोचना थी, उन्हें हटाने का निर्देश दिया गया।
11. ऐसे विज्ञापनों से उपभोक्ताओं पर क्या असर पड़ता है?
इस तरह के विज्ञापन उपभोक्ताओं के निर्णय को भ्रमित करते हैं और वे गलत उत्पाद चुन सकते हैं, जिससे स्वास्थ्य को नुकसान हो सकता है।
12. क्या यह फैसला सिर्फ पतंजलि के लिए लागू है?
नहीं, यह फैसला एक मिसाल है जो सभी औषधीय उत्पादों और उनके विज्ञापनों पर लागू हो सकता है।
13. झूठे औषधीय दावों की सजा क्या हो सकती है?
ऐसे मामलों में जुर्माना, विज्ञापन रोकने का आदेश, या उत्पाद की बिक्री पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
14. अगर उपभोक्ता को कोई विज्ञापन झूठा लगे तो क्या करें?
वे ASCI (Advertising Standards Council of India), आयुष मंत्रालय या उपभोक्ता अदालत में शिकायत कर सकते हैं।
15. कोर्ट ने यह क्यों कहा कि “टॉयलेट क्लीनर के विज्ञापन की तुलना औषधीय उत्पाद से नहीं की जा सकती”?
क्योंकि औषधीय उत्पाद सीधे उपभोक्ता के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, इसलिए उनके विज्ञापन में सच्चाई और प्रमाणित जानकारी जरूरी होती है। टॉयलेट क्लीनर जैसे उत्पाद की तुलना में औषधीय उत्पादों पर कड़ा नियम लागू होता है।
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